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Шри Упадешамрита АудиоНектар НаставленийАудиокнига Шри Упадешамрита - скачать, слушать онлайн в формате .mp3 , а также текстовый версия для чтения . Краткое обобщение ведических знаний, сделанное Шрилой Рупой Госвами - святым гаудия-вайшнавской традиции в ХVI веке. Для более глубокого изучения Аудиокнига представлена в пяти вариантах : 1.Только перевод - одним файлом для целостного восприятия текста . 2.Перевод по Текстам с нумерацией - для заучивания 3.Санскрит целиком - классическое брахманское исполнение 4.Санскрит по Текстам с нумерацией - для заучивания 5.Санскрит + Перевод по Текстам - для сопоставления оригинального звучания с переводом. ПОЖЕРТВОВАТЬ НА РАЗВИТИЕ РЕСУРСА Содержание Предисловие Текст первый Текст второй Текст третий Текст четвертый Текст пятый Текст шестой Текст седьмой Текст восьмой Текст девятый Текст десятый Текст одиннадцатый Шри Упадешамрита санскрит (деванагари) वाचो वेगं मनसः क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम् । एतान् वेगन् यो विषहेत धीरः सर्वामपीमं पृथिवीं स शिष्यात् ॥१॥ अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमग्रहः । जनसङ्गश्व लौल्यं च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति ॥२॥ उत्साहान्निश्चयाद्ढैर्यात्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यगात् सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥३॥ ददाति प्रतिगृह्णाति गृह्यामाख्याति पृच्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥४॥ कृष्णेति यस्य गिरि तं मनसाद्रियेत दीक्षास्ति चेत प्रणतिभिश्च भजन्तमीशम् । शुश्रूषया भजनविज्ञमनन्यमन्य- निन्दादिशून्यहृदमीप्सितसङ्गलब्ध्या ॥५॥ दृष्टैः स्वभावजनितैर्वपुषश्च दोषैर् न प्राकृतत्वमीह भक्तजनस्य पश्येत् । गङ्गाम्भसां न खलु बुद्बुदफेन पङ्कैः र्ब्रह्मद्रवत्वमपगच्छतिनीरधर्मैः ॥६॥ स्यात् कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या- पित्तोपतप्तरसनस्य न रोचिका नु । किन्त्वादरादनुदिनं खलु सैव जुष्टा स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गदमूलहन्त्री ॥७॥ तन्नामरूपचरितादिसुकीर्तनानु- स्मृत्योः क्रमेण रसनामनसी नियोज्य । तिष्ठन् व्रजे तदनुरागिजनानुगामी कालं नयेदखिलमित्युपदेशसारम ॥८॥ वैकुण्ठाज्जनितो वरा मधुपुरी तत्रापि रासोत्सवाद् वृन्दारण्यमुदारपाणिरमणात्तत्रापि गोवर्धनः । राधाकुन्डमिहापि गोकुलापतेः प्रेमामृताप्लावनात् कुर्यादस्य विराजतो गिरितटे सेवां विवेकी न् कः ॥९॥ कर्मिभ्यः परितो हरेः प्रियतया व्यक्तिं यायुर्ज्ञानिनस् तेभ्यो ज्ञानविमुक्तभक्तिपरमाः प्रेमैकनिष्ठास्ततः । तेभ्यास्ताः पशुपालपङ्कजदृशस्ताभ्योऽपि सा राधिका प्रेष्ठा तद्वदियं तदीयसरसी तां नाश्रयेत कः कृती ॥१०॥ कृष्णस्योच्चैः प्रणयवसतिः प्रेयसीभ्योपि राधा कुंडम चास्या मुनिभिरभितस्तादृगेव व्याधायि । यत्प्रेष्ठैरप्यलमसुलभं किं पुनर्भक्तिभाजाम तत्प्रेमेदं सकृदपि सरः स्नातुराविष्करोति ॥११॥ The Bhaktivedanta Book Trust International, Inc © 1972-2012. Все права защищены |
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